Aigiri nandini lyrics with meaning in hindi

Aigiri nandini lyrics with meaning in hindi : Aigiri Nandini Lyrics Is a Bhakti Song Aigiri nandini lyrics Sung by Rajalakshmee Sanjay Aigiri nandini lyrics Music Given By Sanjay Chandrasekhar and Aigiri nandini lyrics Lyrics Writing by Adi Sankaracharya Aigiri nandini lyrics This song Relesed by Rajshri Soul Youtube Channel

Song Title :-Aigiri nandini lyrics with meaning in hindi
Singer :-Rajalakshmee Sanjay
Music :-Sanjay Chandrasekhar
Lyrics :-Adi Sankaracharya
Language :-Snaskrit
Music Label :-Rajshri Soul

Aigiri nandini lyrics with meaning in hindi

अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते

गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते

भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 1 ||

भावार्थ  हे गिरिपुत्री, पृथ्वी को आनंदित करने वाली, संसार का मन मुदित रखने वाली, नंदी द्वारा नमस्कृत, पर्वतप्रवर विंध्याचल के सबसे ऊंचे शिखर पर निवास करने वाली, विष्णु को आनंद देने वाली, इंद्रदेव द्वारा नमस्कृत, नीलकंठ महादेव की गृहिणी, विशाल कुटुंब वाली, विपुल मात्रा में निर्माण करने वाली देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो ।

सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते

त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते ।

दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 2 ||

भावार्थ – हे सुरों पर वरदानों का वर्षंण करने वाली, दुर्मुख और दुर्धर नामक दैत्यों का संहार करने वाली, सदा हर्षित रहने वाली, तीनों लोकों का पालन-पोषण करने वाली, शिवजी को प्रसन्न रखने वाली, कमियों को, दोषों को दूर करने वाली, हे (नाना प्रकार के आयुधों के) घोष से प्रसन्न होने वालीं, दनुजों के रोष को निरोष करने वाली – निःशेष करने वाली, तात्पर्य यह कि दनुजों को ही समाप्त करके उनके रोष (क्रोध) को समाप्त करने वाली, दितिपुत्र अर्थात् दैत्यों (माता दिति के पुत्र होने से वे दैत्य कहलाये) पर रोष (क्रोध) करने वाली, दुर्मद दैत्यों को, यानि मदोन्मत्त दैत्यों को, भयभीत करके उन्हें सुखाने वाली, हे सागर-पुत्री ! हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते

शिखरि शिरोमणि तुंगहिमालय श्रृंगनिजालय मध्यगते ।

मधुमधुरे मधुकैटभगंजिनि कैटभभंजिनि रासरते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 3 ||

भावार्थ – हे जगन्माता, हे मेरी माता ! अपने प्रिय कदम्ब-वृक्ष के वनों में वास व विचरण करने वाली हे हासरते ! `हासरते` अर्थात उल्लासमयी, हास-उल्लास में रत। ऊंचे हिमाद्रि के मुकुटमणि सदृश सर्वोच्च शिखर के बीचोबीच जिसका गृह (निवासस्थान) है, ऐसी हे शिखर-मंदिर में रहने वाली देवी ! मधु के समान मधुर ! मधु-कैटभ को पराभूत करने वाली, कैटभ का संहार करने वाली, कोलाहल में रत रहने वाली, हे महिषासुरमर्दिनि, हे सुकेशिनी, हे नगेश-नंदिनी ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

अयि शतखणडविखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्ड गजाधिपते

रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते ।

निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 4 ||

भावार्थ–शत्रु सैन्य के उत्तम हाथियों की सूंड काट कर उनके खंड-खंड हुए धड़ों के सौ सौ टुकड़े कर डालने वाली, जिनका सिंह शत्रुओं के हाथियों के मुंह नोच कर चीर डालता है, अपनी भुजा में उठाये हुए दण्ड से शत्रुपक्ष के योद्धाओं के मुंड (सिर) काट फेंकने वाली, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

अयि रणदुर्मदशत्रुवधोदितदुर्धरनिर्जरशक्तिभृते

चतुरविचारधुरीणमहाशिवदूतकृतप्रमथाधिपते |

दुरितदुरीहदुराशयदुर्मतिदानवदूतकृतान्तमते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 5 ||

भावार्थ – हे युद्ध में उन्मत्त हो जाने वाली, शत्रुओं का वध करने के लिए आविर्भूत होने वाली, उनके लिए दुस्सह, सदा युवा रहने वाली, शक्ति को धारण करने वाली या शक्ति से सज्जित, बुद्धिमानों में अग्रणी भगवान शिव को -भूतनाथ को, दूत बना कर भेजने वाली तथा अधम वासना व कुत्सित उद्देश्य से दैत्यराज शुम्भ द्वारा भेजें गये दानव-दूतों का अंत करने वाली, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे

त्रिभुवनमस्तक शूलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शूलकरे ।

दुमिदुमितामर दुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिङ्मकरे

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 6 ||

भावार्थ – शरणापन्न शत्रुपत्नियों के योद्धा-पतियों को अभय प्रदान करने वाली, अपने त्रिशूल-विरोधी को, चाहे हे वह त्रिभुवन का स्वामी हो, अपने त्रिशूल से नतमस्तक करने वाली, दुन्दुभि से उठते दुमि-दुमि के ताल के लगातार बहते ध्वनि-प्रवाह से दिशाओं को महान रव से भरने वाली, हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिनन्दिनि तुम्हारी जय हो, जय हो !

अयि निज  हुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते

समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते ।

शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 7 ||

भावार्थ – अपनी केवल हुंकार मात्र से धूम्रविलोचन (एक दैत्य का नाम) को आकारहीन करके सौ सौ धुंए के कणों में बदल कर रख देने वाली, युद्ध में रक्तबीज (एक दैत्य का नाम) और उसके रक्त की बूँद-बूँद से पैदा होते हुए और बीजों की बेल सदृश दिखने वाले अन्य अनेक रक्तबीजों का संहार करने वाली, शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों की शुभ आहुति देकर महाहवन करते हुए भूत-पिशाच आदि को तृप्त करने वाली देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !

धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके

कनकपिशंग पृषत्कनिषंग रसद्भटश्रृंग हताबटुके ।

कृतचतुरंग बलक्षितिरंग घटद्बहुरंग रटद्बटुके

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 8 ||

भावार्थ – रणभूमि में, युद्ध के क्षणों में, धनुष थामे हुए जिनके घूमते हुए हाथों की गति-दिशा के अनुरूप जिनके कंकण हाथ में नर्तन करने लगते हैं, ऐसी हे देवी ! रण में गर्जना करते शत्रु योद्धाओं की देहों के साथ मिलाप होने से और उन हतबुद्धि (मूर्खों) को मार देने पर, जिनके स्वर्णिम बाण (दैत्यों के लहू से) लाल हो उठते हैं, ऐसी हे देवी तथा स्वयं को घेरे खड़ी, बहुरंगी शिरों वाली और गरजते हुए शत्रुओं की चतुरंगिणी सेना को नष्ट कर जिन्होंने विनाश-लीला मचा दी, ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते

कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते ।

धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 9 ||

भावार्थ –  देवी की महिमा का स्वर्गलोक में गान होता है । सुररमणियां (देवांगनाएँ) जिनके पराक्रम का अभिनय करने के आशय से, कु-कुथ कु-कुथ, ग ड धा आदि ताल के साथ बजते हुए संगीत से, कुतूहल जगाते हुए, ता-थेई ता-थेई करती हुए नृत्य करती हैं और जो (देवी) धु-धु-कुट की ताल और मृदंग से निकलती हुई धिमि- धिमि की गंभीर ध्वनि के निनाद में रत हैं, ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते

झणझणझिंझिमि झिंकृत नूपुरशिंजितमोहित भूतपते ।

नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 10 ||

भावार्थ – जय जय की हर्षध्वनि और जयघोष से देवी की स्तुति करने में तत्पर है रहने वाले अखिल विश्व द्वारा वन्दिता, झन-झन झनकते नूपुरों की ध्वनि से (रुनझुन से) भूतनाथ महेश्वर को मुग्ध कर देने वाली देवी, और जहाँ नट-नटी दोनों प्रमुख होते हैं, ऐसी नृत्यनाटिका में नटेश्वर (शिव) के अर्धभाग के रूप में नृत्य करने वाली एवं सुमधुर गान में रत, हे महिषासुर का घात करने वाली देवी, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !

अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते

श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते ।

सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 11 ||

भावार्थ – सुन्दर मनोहर कांतिमय रूप के साथ साथ सुन्दर मन से संयुत और रात्रि के आश्रय अर्थात् चन्द्रमा जैसी उज्जवल मुख-मंडल की आभा से युक्त हे देवी, काले,मतवाले भंवरों के सदृश, अपितु उनसे भी अधिक गहरे काले और मतवाले-मनोरम तथा चंचल नेत्रों वाली , हे महिषासुर का घात करने वाली देवी, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो.

सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते

विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते ।

शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 12 ||

भावार्थ – एक विशाल रूप से आयोजित महासत्र (महायज्ञ) की भांति ही रहे घोर युद्ध में, फूल-सी कोमल किन्तु रण-कुशल साहसी स्त्री-योद्धाओं सहित जो संग्राम में रत हैं और भील स्त्रियों ने झींगुरों के झुण्ड की भांति जिन्हें घेर रखा है, जो उत्साह और उल्लास से भरी हुई हैं और जिनके उल्लास की लालिमा से (प्रभातकालीन अरुणिमा की भांति) अतीव सुन्दर-सुकोमल कलियां पूरी तरह खिल खिल उठती हैं, ऐसी हे लावण्यमयी देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !

अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते

त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते ।

अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 13 ||

भावार्थ – कर्ण-प्रदेश या कनपटी से सतत झरते हुए गाढ़े मद की मादकता से मदोन्मत्त हुए हाथी-सी (उत्तेजित ) हे गजेश्वरी, हे त्रिलोक की भूषण यानि शोभा, सभी भूत यानि प्राणियों, चाहे वे दिव्य हों या मानव या दानव, की कला का आशय, रूप-सौंदर्य का सागर, हे (पर्वत) राजपुत्री, हे सुन्दर दन्तपंक्ति वाली सुंदरियों को पाने के लिए मन में लालसा और अभिलाषा उपजाने वाली तथा कामना जगाने वाली, मन को मथने वाले हे कामदेव की पुत्री (के समान ), हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते

सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले ।

अलिकुलसंकुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 14 ||

भावार्थ – कमल के फूल की निर्मल पंखुड़ी की सुकुमार, उज्जवल आभा से सुशोभित (कान्तिमती) है भाल-लता जिनकी, ऐसी हे देवी, जिनकी ललित चेष्टाओं में, पग-संचरण, में कला-विन्यास है, जो कला का आवास है, जिनकी चाल-ढाल में राजहंसों की सी सौम्य गरिमा है, जिनकी वेणी में, भ्रमरावली से आवृत कुमुदिनी के फूल और बकुल के भंवरों से घिरे फूल एक साथ गुम्फित हैं, ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी, हे गिरिराज पुत्री, तुम्हारी जय हो, जय हो !

करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते

मिलितपुलिन्द मनोहरगुंजित रंजितशैल निकुंजगते ।

निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 15 ||

भावार्थ – जिनकी करगत मुरली से निकल कर बहते स्वर से कोकिल-कूजन लज्जित हो जाता है, ऐसी हे माधुर्यमयी तथा जो पर्वतीय जनों द्वारा मिल कर गाये जाने वाले, मिठास भरे, गीतों से गुंजित रंगीन पहाड़ी निकुंजों में विचरण करती हैं, वे और अपने सद्गुणसम्पन्न गणों व वन्य प्रदेश में रहने वाले, शबरी आदि जाति के लोगों के साथ जो पहाड़ी वनों में क्रीड़ा (आमोद-प्रमोद) करती हैं, ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली, सुंदर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !

कटितटपीत दुकूलविचित्र मयूखतिरस्कृत चन्द्ररुचे

प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे

जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 16 ||

भावार्थ – जिन रेशमी वस्त्रों से फूटती किरणों के आगे चन्द्रमा की ज्योति कुछ भी नहीं है, ऐसे दुकूल (रेशमी परिधान) से जिनका कटि-प्रदेश आवृत है और जिनके पद-नख चन्द्र-से चमक रहे हैं उस प्रकाश से, जो देवताओं तथा असुरों के मुकुटमणियों से निकलता है, जब वे देवी-चरणों में नमन करने के लिए शीश झुकाते हैं साथ ही जैसे कोई गज (हाथी) सुमेरु पर्वत पर विजय पा कर उत्कट मद (घमंड) से अपना सिर ऊंचा उठाये हो, ऐसे देवी के कुम्भ-से (कलश-से) उन्नत उरोज प्रतीत होते हैं, ऐसी हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा तुम्हारी जय होजय हो !

विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते

कृतसुरतारक संगतारक संगतारक सूनुसुते ।

सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते ।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 17 ||

भावार्थ – अपने सहस्र हाथो से देवी ने जिन सहस्र हाथों को अर्थात् सहसों दानवों को विजित किया उनके द्वारा और (देवताओं के) सहस्र हाथों द्वारा वन्दित, अपने पुत्र को सुरगणों का तारक (बचाने वाला) बनानेवाली, तारकासुर के साथ युद्ध में,(देवताओं के पक्ष में) युद्ध बचाने वाले पुत्र से पुत्रवती अथवा ऐसे पुत्र की माता एवं उच्चकुलोत्पन्न सुरथ और समाधि द्वारा समान रूप से की हुई तपस्या से प्रसन्न होने वाली देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे

अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् ।

तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 18 ||

भावार्थ – हे सुमंगला, तुम्हारे करुणा के धाम सदृश (के जैसे) चरण-कमल की पूजा जो प्रतिदिन करता है, हे कमलवासिनी, वह कमलानिवास (श्रीमंत) कैसे न बने ? अर्थात कमलवासिनी की पूजा करने वाला स्वयं कमलानिवास अर्थात धनाढ्य बन जाता है । तुम्हारे पद ही (केवल) परमपद हैं, ऐसी धारणा के साथ उनका ध्यान करते हुए हे शिवे ! मैं परम पद कैसे न पाउँगा ? हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुषिंचति तेगुणरंगभुवम्भ

जति स किं न शचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।

तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम्ज

य जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 19 ||

भावार्थ – स्वर्ण-से चमकते व नदी के बहते मीठे जल से जो तुम्हारे कला और रंग-भवन रुपी मंदिर मे छिड़काव करता है वह क्यों न शची (इन्द्राणी) के कुम्भ-से उन्नत वक्षस्थल से आलिंगित होने वाले (देवराज इंद्र) की सी सुखानुभूति पायेगा ? हे वागीश्वरी, तुम्हारे चरण-कमलों की शरण ग्रहण करता हूँ, देवताओं द्वारा वन्दित हे महासरस्वती, तुममें मांगल्य का निवास है । ऐसी हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते

किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते ।

मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 20 ||

भावार्थ – तुम्हारा मुख-चन्द्र, जो निर्मल चंदमा का सदन है, सचमुच ही सभी मल-कल्मष को किनारे पर कर देता है अर्थात् दूर कर देता करता है । इन्द्रपुरी की चंद्रमुखी हो या सुन्दर आनन वाली रूपसी, वह (तुम्हारा मुख-चन्द्र) उससे (अवश्य) विमुख कर देता है । हे शिवनाम के धन से धनाढ्या देवी, मेरा तो मत यह है कि आपकी कृपा से क्या कुछ संपन्न नहीं हो सकता । हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे

अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते ।

यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।। 21 ||

भावार्थ – दीनों पर सदैव दयालु रहने वाली हे उमा, अब मुझ पर भी कृपा कर ही दो, (मुझ पर भी तुम्हें कृपा करनी ही होगी) । हे जगत की जननी जैसे तुम कृपा से युक्त हो वैसे ही धनुष-बाण से भी युत हो, अर्थात् स्नेह व संहार दोनों करती हो । जो कुछ भी उचित हो यहाँ, वही आप कीजिए, हमारे ताप (और पाप) दूर कीजिए, अर्थात् नष्ट कीजिए । हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

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